Sunday 30 September 2007

भागवत गीता २.३८-२.३९ सांख्य भक्ती योग

आपने लीये कर्म करना,
और भगवान के लीये कर्म करना,

बस, इन मैं भेद जीसने जाना,
उसका जीवन धन्य हो गया,

अपने दील के सुख या दुख के लीये,
इन्द्रीयोंसे जुड़ा कोई भी कर्म होता है,
वोह काल गती मैं फीर से बंध जाता है,

भगवान की शरण मैं जों कर्म कर्ता है,
वोह सब कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है,

अर्जुना, तुम तो 'भक्त' हो,
युद्ध युद्ध के लीये करो,
मैं कह रहा हु, इस्लीये करो,
तो तुम इसके परीणामौसे मुक्त हो जाओगे
यही सांख्य योग है, भक्ती योग है,

भगवान् की शरण मैं कर्म करना,
नीरंतर अनंद को पा लेना है ||

|| जय गुरुदेव ||

भागवत गीता २.३५-२.३७ भक्त की आंखोंसे'

भक्त की आंखोंसे'

समझानेसे , समझ ना पाया,
माया का पर्दा हटा ना सका,
भगवान् ने फीर भाषा बदली,
भक्त से दोस्ती की ऊँगली पकड़ाइँ,

ऊंचाई से ना देख पाया तो,
खुद उस से नज़ारे मीलाई,

और कहने लगे भगवान्,
मेरा कुछ ना सुनो अब,
सीर्फ सोचो, अर्जुना एक बार,

नही लडोगे तो ना पाओगे सं मान,
ना ही मीलेगा स्वगि का द्वार,

लडोगे तो दीलोंपेर भी राज करोगे,
और स्वर्ग के द्वार भी खुलेंगे,

तुम जों भी करोगे, एक इतीहास बन कर रहेगा,
डरपोक होकर नींदा सह्नेसे अच्छा है,
धर्म नीभाकर एक मीसाल बन जाना ..||

Thursday 27 September 2007

भागवत गीता - २.३१-२.३४ धर्म से कर्म कर

भागवत गीता - २.३१-२.३४

धर्म से कर्म कर


ओह, अर्जुना,

तुम तो क्शत्रीय हो,

'क्षत' याने पीडा , 'त्रयता' मतलब मीटानेवाला वाला,
तुम पीड़ा से तार्नेवाले हो, यही तुम्हारा धर्म है,

अहींसा तुम्हारी चाल हो सकती है,
चलन नही, तत्व नही..


तुम्हारा अहम भाव है,
जों तुमको अच्छाई के परदे से
एक संकुचीत भाव मैं डाल रहा है..

जब तक मुक्ती नही मीलती,
तब तक शरीर धर्म पालन करना ही होगा,
तभी मुक्ती का पथ आगे बढेगा..

तुम तो भाग्यवान हो पार्थ,
स्वगि के द्वार तक पहुचानेके लीये,
अपना धर्म नीभानेके लीये,
युद्ध तो आप ही तुम्हारे सामने है..

उठो, और धर्म नीभाओ,
संकोच मत करो और संकुचीत भी मत हो जाओ..

Wednesday 26 September 2007

भागवत गीता २।२९ - २.३० " अहो नीरंजनः "

" अहो नीरंजनः "

क्या तुमने सुना,कौन तुम्हे 'सुनवा' रहा है,
क्या तुमने देखा, कौन तुम्हे 'दीखा' रहा है,
क्या तुमने महसूस कीया, कौन तुमको 'महसूस करवा' रहा है??

जवाब दो,
अपने आप से,

कोई सोचता है, यह तो बड़ा आश्चयि है,
कोई कहता है, बड़ा वीस्मयकारक है,
कोई कहता है, यह तो समझ के बाहर है |

कोई कुछ भी कहे, यह 'है',
इसको कोई इनकार नही कर पायेगा |


तुम तो नादाँ नही हो भरता,
फीर ऎसी बाते क्यो करते हो?

जागो, और देखो,
सारे जगत मैं एक ही चैतन्य है,
उस अद्भूत चैतन्य को पहचान लो |

Monday 24 September 2007

भग्वत गीता २.२६-२.२८

|| तुम लहर नही समंदर हो ||

यह बात तो तय है,
आनेवाला जाएगा,
जानेवाला आएगा,
काल की गती चलती रहेगी,
सागर मैं लहरे उठती रहेगी,

क्यो शरीर,दील, दीमाग को देख रहे हो,
सब एक दीखावा है,पल पल बदलने वाला है,


अरे पार्थ,

वोह देखो जीसकी वजह से दिख रह है,
वोह छुओ जीसके वजह से छू सकते हो,
वोह सुनो, जीसकी वजह से सुन सकते हो,

फीर पाओगे तुम अपने आप को,
और जानोगे, यहा जों भी है,
बस एक ही है, तुम मैं, उसमें,
आसमान मैं, भूमी मैं..

और जों 'है ' वोह 'है',
सीर्फ 'है'..

तुम्हारा दिखता हुआ शरीर,
मन्, बुद्ही, अंहकार और
इतनाही नही, तुम्हारा ग्यान भी
उस 'है' को बदल नही सकता,
ना उसका अतीत है, ना वर्तमान,
ना भवीष्य होगा ना काल

दील की ऊँगली पकडे मत चलो,
दील को सही रास्ता दीखाओ
तुम दील से परे हो
लहर नही समंदर हो ||

Sunday 23 September 2007

धारा को राधा बनाओ


भागवत गीता (2।22-2.२५)

|| धारा को राधा बनाओ ||

गंगा नीत नूतन है,
फीर भी बहोत पुरानी है,
धाराये बहती रहती है,
पानी नीत नूतन बहता है,
गंगा वही थी जों अब है,||

तुम भी नीत नूतन हो,
फीर भी बहोत पुराने हो,
भावानाये बहती रहती है,
आती जाती रहती है,
तुम वही थे जों अब हो,||

जरा एक पल रुको ,
शांती से देखो,
धारा को राधा बनाओ (जय गुरुदेव)
इसी पल मैं जान लो,
कल भी तुम वही रहोगे,
जों कल थे, आजभी हो,
अन छुए , शुद्ध, पवीतृ


ना आग तुमको जला सकती है,
ना पानी तुम्हे डूबा सकता है,
ना वायु तुम्हे बहा सकता है,
ना मिट्टी तुम्हे मीटा सकती है,

जनम और मृत्यु का भय कैसा,
वोह तो आते जाते है,
नए शरीर लेके.
कर्म करने के लीये..||

असली रूप को जानो,
और नीराशा से परे हो जाओ..
धारा को राधा बनाओ
धारा को राधा बनाओ ||






Friday 21 September 2007

भागवत गीता (२.१९-२.२१)अजो अनन्ताय

अजो अनन्ताय (२.१९-२.२१)

सत् तो इन्दिर्यों से परे है,
जों ना आंखोंसे दीखता है, जोन ना पकड़ मैं आता है,
जों ना जबान से कहा जा सकता है, ना कानों से सून सकते हो.
इसिलए सत् की जबानी सीर्फ 'नेती' 'नेती' हो सकती है,
कैसे उसे कहे वोह क्या है??

जोह भी मारनेवाला है,या मरनेवाला है,
वोह तो ना तुम हो ना वोह, ना कोइ और,
वोह तो रुप मैं बंधे हुये आकार है,


जैसे दीखता है, मगर अँधेरा कभी होता ही नही,
वोह तो सीर्फ रौशनी का आभाव होता है,
और रौशनी कभी आती और जाती नही,
वोह हमेशा रहती है,
पानी मैं भी, हवा मैं भी,
तुम जीस्त्रह से देखोगे, उसे जगाओगे,
वोह वैसे रुप लेगी, मगर उसके रुप मीटानेसे
वोह नही मीटेगी, उसका सीर्फ दीखना मीटेगा.

है ना?

नीरंतर जीवन

भागवत गीता - २.१६-२.१८
नीरंतर जीवन
जों पल पल बदल रह है, वोह कैसे रहेगा हमेशा,
हमेशा तो सत्य ही रहता है, कल आज और कल, वैसे के वैसा,
भावनाओं को देखो , वोह बदल रही है पल पल,
इसीलीये मन टीक नही पा रहा एक ही जवाब पर,
तो क्या फीर यह भावानाओंके खेल को 'सत्' सम्जोगे ??
ज़रा
भावानाओंके उस पार देखो, जहाँ कोई अच्छी या बुरी बात नही,

ना स्तीथी है, ना गती,
ना पाना है , ना खोना ,
ना माया है ना शंका,
ना आभाव है ना प्रभाव

तो तुम देख पाओगे,
जों था, है, रहेगा,
जैसा था, वैसेही शुद्ध, स्वयम्भू

व्यक्त , अव्यक्त दोनो मैं,
जीसका ना जनम है ना मृत्यू है,

जों जानेवाला है वोह तो सीर्फ शरीर है,
'सत्'को देखोगे तो जानोगे,
सभी जगह..
सीर्फ 'है'....यह 'है' ही 'सत्' है,
फीर डर कीस के खोने का?
कौनसे 'जय' और 'पराजय'का?
कौनसे 'सही' और 'गलत' का?
उठो, और अपना 'शरीर कर्म' करो॥
(क्षत्रिय का शरीर पाया है, उसका धर्म नीभाओ)