Monday 8 October 2007

भागवत गीता २.४७-२.48

*कर्मंयेवाधिकारास्ते माँ फलेषु कदाचना*
*माँ कर्मफलाहेतुर्बुर माँ ते संगोस्त्वकर्मानी (२.४७)*
*योगास्थाह कुरु क्रमानी संगम त्यक्त्वा धनञ्जय*
*सिद्ध्यासिद्ध्यो समोभूत्वा समत्वं योगामुच्याते (२.४८)*


|| नीष्काम कर्म योग ||

चाहत की डोर से कर्म को बांधना,
सुख-दुःख, लाभ-हानी के माया पाश मैं
बार बार फस जाना है,

बीना कोई चाहत लीये कर्म करना,
और भगवान् को समर्पीत करना,
यही योग युक्त कर्म है ||


हार हो या जीत, सुख मीले या दुःख,
मन से उसे स्वीकारो , इतना वीश्वास रखो,
भगवान् बडे दयालु है, साबका भला कराते है,
बस कोई आगे है , कोई पीछे रहता है ||

|| शरीर जगत का है , आत्मा इश्वर की है , इश्वर तुम्हारी एकमात्र सुरक्शा है || जय गुरूदेव

भागवत गीता २.४५-२.46

त्रैगुन्याविशाया वेदा निस्त्रैगुन्यो भावार्जुना
निर्द्वंद्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगाक्षेमा आत्मवान (२.४५)

|| साक्षी बने रहो || (जय गुरूदेव)

जीवन को दूर से देखो,
नजर आएंगे आते और जाते सारे नज़ारे,

सुख हो या दुःख,
लाभ हो या हानी,
लोभ हो या संतुष्टी,
प्रेम हो या वीरक्ती,

सब थोड़ी देर आते है,
फीर दुसरे आते है, पहले चले जाते है,
चक्र चलता रहता है,
इसमें घुमते रहना ही जींदगी है??

इन कर्मों मैं बंधे रहोगे,
तो ऊपर कब उठ पाओगे,
ओ' अर्जुना, सत्व, रजो, तमो
इनसे उपर उठो, और जों नीत नूतन स्थीत है,
उस को देखो ||


यावानार्था उदापाने सर्वतः सम्प्लुतोदाके
तावान्सर्वेशुवेदे शु ब्राह्मनास्य विजानातः (२.४६)

|| बुद्ही और होशियारी ||


श्री कार्तीकेय ने सारे वीश्व की लंबी फ़ेरी लगाई
श्री गणेश जी ने माँ को प्यारी सी फ़ेरी लगाई...

अपने पास क्या है जानो,
थोडा होशीयार और सतर्क बनो,
बस सामने 'क्या' है नही , 'क्यों' है जांन लो,

फीर पता चल जाएगा,
बुद्ही की आंखे खुलेगी,
दृश्य के परे देख पाओगे,
तो जीना 'खेल' है जानोगे ||

भगवन की चरण धुल मैं,
कर्म यग्य का पुण्य तो क्या,
सारा जहाँ पाओगे ||

|| तार्कीक बुद्ही के अवरोध को पार कर स्वयम के लीये स्वतंत्रता पाओ|| जय गुरूदेव

Sunday 7 October 2007

भागवत गीता 2.४२-२.४४ || अंतर मुखी सदा सुखी || (जय गुरूदेव )

|| अंतर मुखी सदा सुखी || (जय गुरूदेव )

स्वगि को सोचते है तो कहते है,
बहोत सुंदर है,
मदीरा, मदीराक्शी का सुख है,
इसको पाना जीवन उद्देश्य है,
कहते है- जीनका ग्यान अधूरा है ||

मगर, जरा सोचो, चाहत का कोई अंत नही,
जरा जान के चलो, कुछ मान के चलो,
फीर चाहत से मुक्ती नीश्चीत है,
स्वगि से परे भी एक अनंद है,
बस अपने आप से मीलना है ||

कुछ पाने और छोड़ने की चक्कर मैं,
तुम कर्म करते रहोगे,
तो अपने आप से कब मीलोगे ?
जरा अपने अंदर झाको,
सवर्ग से सुंदर प्रदेश है,
बस अंत तक आनंद ही आनंद है ||

भागवत गीता 2.४०-२.41कुछ जान के चलो कुछ मान के चलो

कुछ जान के चलो कुछ मान के चलो

देह बुद्हीसे परे भी तुम्हारा अस्तीत्व है,
कर्म सीर्फ शरीर बुद्ही से सीमीत मत रखो,
कर्म अगर भगवान् से जुड़ा हो,
तो क्या बात है..

शरीर से जुडा कर्म तो शरीर के साथ ख़त्म होगा,
श्री कृष्ण से जुडा हुआ कर्म तो शरीर से ही मुक्ती देगा.

शरीर का कर्म तो पुरा होने तक उसका कोई फल नही,
श्री कृष्ना से जुडा कर्म तो थोडा थोडा फीर भी हर बार पुरा ,
इस मैं कोई शक नही.

श्रद्धा या तो पुरी होती है, या
सीर्फ बुद्ही की शाखाएं बढती है..

कुछ जान के चलो, कुछ मान के चलो. .(जय गुरूदेव)
कृष्ण भावना से हर पल जुडे रहो||

||जय गुरूदेव ||