Monday 8 October 2007

भागवत गीता २.४५-२.46

त्रैगुन्याविशाया वेदा निस्त्रैगुन्यो भावार्जुना
निर्द्वंद्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगाक्षेमा आत्मवान (२.४५)

|| साक्षी बने रहो || (जय गुरूदेव)

जीवन को दूर से देखो,
नजर आएंगे आते और जाते सारे नज़ारे,

सुख हो या दुःख,
लाभ हो या हानी,
लोभ हो या संतुष्टी,
प्रेम हो या वीरक्ती,

सब थोड़ी देर आते है,
फीर दुसरे आते है, पहले चले जाते है,
चक्र चलता रहता है,
इसमें घुमते रहना ही जींदगी है??

इन कर्मों मैं बंधे रहोगे,
तो ऊपर कब उठ पाओगे,
ओ' अर्जुना, सत्व, रजो, तमो
इनसे उपर उठो, और जों नीत नूतन स्थीत है,
उस को देखो ||


यावानार्था उदापाने सर्वतः सम्प्लुतोदाके
तावान्सर्वेशुवेदे शु ब्राह्मनास्य विजानातः (२.४६)

|| बुद्ही और होशियारी ||


श्री कार्तीकेय ने सारे वीश्व की लंबी फ़ेरी लगाई
श्री गणेश जी ने माँ को प्यारी सी फ़ेरी लगाई...

अपने पास क्या है जानो,
थोडा होशीयार और सतर्क बनो,
बस सामने 'क्या' है नही , 'क्यों' है जांन लो,

फीर पता चल जाएगा,
बुद्ही की आंखे खुलेगी,
दृश्य के परे देख पाओगे,
तो जीना 'खेल' है जानोगे ||

भगवन की चरण धुल मैं,
कर्म यग्य का पुण्य तो क्या,
सारा जहाँ पाओगे ||

|| तार्कीक बुद्ही के अवरोध को पार कर स्वयम के लीये स्वतंत्रता पाओ|| जय गुरूदेव

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