|| अंतर मुखी सदा सुखी || (जय गुरूदेव )
स्वगि को सोचते है तो कहते है,
बहोत सुंदर है,
मदीरा, मदीराक्शी का सुख है,
इसको पाना जीवन उद्देश्य है,
कहते है- जीनका ग्यान अधूरा है ||
मगर, जरा सोचो, चाहत का कोई अंत नही,
जरा जान के चलो, कुछ मान के चलो,
फीर चाहत से मुक्ती नीश्चीत है,
स्वगि से परे भी एक अनंद है,
बस अपने आप से मीलना है ||
कुछ पाने और छोड़ने की चक्कर मैं,
तुम कर्म करते रहोगे,
तो अपने आप से कब मीलोगे ?
जरा अपने अंदर झाको,
सवर्ग से सुंदर प्रदेश है,
बस अंत तक आनंद ही आनंद है ||
Sunday, 7 October 2007
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