भग्वत गीता २.२६-२.२८
|| तुम लहर नही समंदर हो ||
यह बात तो तय है,
आनेवाला जाएगा,
जानेवाला आएगा,
काल की गती चलती रहेगी,
सागर मैं लहरे उठती रहेगी,
क्यो शरीर,दील, दीमाग को देख रहे हो,
सब एक दीखावा है,पल पल बदलने वाला है,
अरे पार्थ,
वोह देखो जीसकी वजह से दिख रह है,
वोह छुओ जीसके वजह से छू सकते हो,
वोह सुनो, जीसकी वजह से सुन सकते हो,
फीर पाओगे तुम अपने आप को,
और जानोगे, यहा जों भी है,
बस एक ही है, तुम मैं, उसमें,
आसमान मैं, भूमी मैं..
और जों 'है ' वोह 'है',
सीर्फ 'है'..
तुम्हारा दिखता हुआ शरीर,
मन्, बुद्ही, अंहकार और
इतनाही नही, तुम्हारा ग्यान भी
उस 'है' को बदल नही सकता,
ना उसका अतीत है, ना वर्तमान,
ना भवीष्य होगा ना काल
दील की ऊँगली पकडे मत चलो,
दील को सही रास्ता दीखाओ
तुम दील से परे हो
लहर नही समंदर हो ||
Monday, 24 September 2007
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