भागवत गीता - २.३१-२.३४
धर्म से कर्म कर
ओह, अर्जुना,
तुम तो क्शत्रीय हो,
'क्षत' याने पीडा , 'त्रयता' मतलब मीटानेवाला वाला,
तुम पीड़ा से तार्नेवाले हो, यही तुम्हारा धर्म है,
अहींसा तुम्हारी चाल हो सकती है,
चलन नही, तत्व नही..
तुम्हारा अहम भाव है,
जों तुमको अच्छाई के परदे से
एक संकुचीत भाव मैं डाल रहा है..
जब तक मुक्ती नही मीलती,
तब तक शरीर धर्म पालन करना ही होगा,
तभी मुक्ती का पथ आगे बढेगा..
तुम तो भाग्यवान हो पार्थ,
स्वगि के द्वार तक पहुचानेके लीये,
अपना धर्म नीभानेके लीये,
युद्ध तो आप ही तुम्हारे सामने है..
उठो, और धर्म नीभाओ,
संकोच मत करो और संकुचीत भी मत हो जाओ..
Thursday 27 September 2007
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