*कर्मंयेवाधिकारास्ते माँ फलेषु कदाचना*
*माँ कर्मफलाहेतुर्बुर माँ ते संगोस्त्वकर्मानी (२.४७)*
*योगास्थाह कुरु क्रमानी संगम त्यक्त्वा धनञ्जय*
*सिद्ध्यासिद्ध्यो समोभूत्वा समत्वं योगामुच्याते (२.४८)*
|| नीष्काम कर्म योग ||
चाहत की डोर से कर्म को बांधना,
सुख-दुःख, लाभ-हानी के माया पाश मैं
बार बार फस जाना है,
बीना कोई चाहत लीये कर्म करना,
और भगवान् को समर्पीत करना,
यही योग युक्त कर्म है ||
हार हो या जीत, सुख मीले या दुःख,
मन से उसे स्वीकारो , इतना वीश्वास रखो,
भगवान् बडे दयालु है, साबका भला कराते है,
बस कोई आगे है , कोई पीछे रहता है ||
|| शरीर जगत का है , आत्मा इश्वर की है , इश्वर तुम्हारी एकमात्र सुरक्शा है || जय गुरूदेव
Monday, 8 October 2007
भागवत गीता २.४५-२.46
त्रैगुन्याविशाया वेदा निस्त्रैगुन्यो भावार्जुना
निर्द्वंद्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगाक्षेमा आत्मवान (२.४५)
|| साक्षी बने रहो || (जय गुरूदेव)
जीवन को दूर से देखो,
नजर आएंगे आते और जाते सारे नज़ारे,
सुख हो या दुःख,
लाभ हो या हानी,
लोभ हो या संतुष्टी,
प्रेम हो या वीरक्ती,
सब थोड़ी देर आते है,
फीर दुसरे आते है, पहले चले जाते है,
चक्र चलता रहता है,
इसमें घुमते रहना ही जींदगी है??
इन कर्मों मैं बंधे रहोगे,
तो ऊपर कब उठ पाओगे,
ओ' अर्जुना, सत्व, रजो, तमो
इनसे उपर उठो, और जों नीत नूतन स्थीत है,
उस को देखो ||
यावानार्था उदापाने सर्वतः सम्प्लुतोदाके
तावान्सर्वेशुवेदे शु ब्राह्मनास्य विजानातः (२.४६)
|| बुद्ही और होशियारी ||
श्री कार्तीकेय ने सारे वीश्व की लंबी फ़ेरी लगाई
श्री गणेश जी ने माँ को प्यारी सी फ़ेरी लगाई...
अपने पास क्या है जानो,
थोडा होशीयार और सतर्क बनो,
बस सामने 'क्या' है नही , 'क्यों' है जांन लो,
फीर पता चल जाएगा,
बुद्ही की आंखे खुलेगी,
दृश्य के परे देख पाओगे,
तो जीना 'खेल' है जानोगे ||
भगवन की चरण धुल मैं,
कर्म यग्य का पुण्य तो क्या,
सारा जहाँ पाओगे ||
|| तार्कीक बुद्ही के अवरोध को पार कर स्वयम के लीये स्वतंत्रता पाओ|| जय गुरूदेव
निर्द्वंद्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगाक्षेमा आत्मवान (२.४५)
|| साक्षी बने रहो || (जय गुरूदेव)
जीवन को दूर से देखो,
नजर आएंगे आते और जाते सारे नज़ारे,
सुख हो या दुःख,
लाभ हो या हानी,
लोभ हो या संतुष्टी,
प्रेम हो या वीरक्ती,
सब थोड़ी देर आते है,
फीर दुसरे आते है, पहले चले जाते है,
चक्र चलता रहता है,
इसमें घुमते रहना ही जींदगी है??
इन कर्मों मैं बंधे रहोगे,
तो ऊपर कब उठ पाओगे,
ओ' अर्जुना, सत्व, रजो, तमो
इनसे उपर उठो, और जों नीत नूतन स्थीत है,
उस को देखो ||
यावानार्था उदापाने सर्वतः सम्प्लुतोदाके
तावान्सर्वेशुवेदे शु ब्राह्मनास्य विजानातः (२.४६)
|| बुद्ही और होशियारी ||
श्री कार्तीकेय ने सारे वीश्व की लंबी फ़ेरी लगाई
श्री गणेश जी ने माँ को प्यारी सी फ़ेरी लगाई...
अपने पास क्या है जानो,
थोडा होशीयार और सतर्क बनो,
बस सामने 'क्या' है नही , 'क्यों' है जांन लो,
फीर पता चल जाएगा,
बुद्ही की आंखे खुलेगी,
दृश्य के परे देख पाओगे,
तो जीना 'खेल' है जानोगे ||
भगवन की चरण धुल मैं,
कर्म यग्य का पुण्य तो क्या,
सारा जहाँ पाओगे ||
|| तार्कीक बुद्ही के अवरोध को पार कर स्वयम के लीये स्वतंत्रता पाओ|| जय गुरूदेव
Sunday, 7 October 2007
भागवत गीता 2.४२-२.४४ || अंतर मुखी सदा सुखी || (जय गुरूदेव )
|| अंतर मुखी सदा सुखी || (जय गुरूदेव )
स्वगि को सोचते है तो कहते है,
बहोत सुंदर है,
मदीरा, मदीराक्शी का सुख है,
इसको पाना जीवन उद्देश्य है,
कहते है- जीनका ग्यान अधूरा है ||
मगर, जरा सोचो, चाहत का कोई अंत नही,
जरा जान के चलो, कुछ मान के चलो,
फीर चाहत से मुक्ती नीश्चीत है,
स्वगि से परे भी एक अनंद है,
बस अपने आप से मीलना है ||
कुछ पाने और छोड़ने की चक्कर मैं,
तुम कर्म करते रहोगे,
तो अपने आप से कब मीलोगे ?
जरा अपने अंदर झाको,
सवर्ग से सुंदर प्रदेश है,
बस अंत तक आनंद ही आनंद है ||
स्वगि को सोचते है तो कहते है,
बहोत सुंदर है,
मदीरा, मदीराक्शी का सुख है,
इसको पाना जीवन उद्देश्य है,
कहते है- जीनका ग्यान अधूरा है ||
मगर, जरा सोचो, चाहत का कोई अंत नही,
जरा जान के चलो, कुछ मान के चलो,
फीर चाहत से मुक्ती नीश्चीत है,
स्वगि से परे भी एक अनंद है,
बस अपने आप से मीलना है ||
कुछ पाने और छोड़ने की चक्कर मैं,
तुम कर्म करते रहोगे,
तो अपने आप से कब मीलोगे ?
जरा अपने अंदर झाको,
सवर्ग से सुंदर प्रदेश है,
बस अंत तक आनंद ही आनंद है ||
भागवत गीता 2.४०-२.41कुछ जान के चलो कुछ मान के चलो
कुछ जान के चलो कुछ मान के चलो
देह बुद्हीसे परे भी तुम्हारा अस्तीत्व है,
कर्म सीर्फ शरीर बुद्ही से सीमीत मत रखो,
कर्म अगर भगवान् से जुड़ा हो,
तो क्या बात है..
शरीर से जुडा कर्म तो शरीर के साथ ख़त्म होगा,
श्री कृष्ण से जुडा हुआ कर्म तो शरीर से ही मुक्ती देगा.
शरीर का कर्म तो पुरा होने तक उसका कोई फल नही,
श्री कृष्ना से जुडा कर्म तो थोडा थोडा फीर भी हर बार पुरा ,
इस मैं कोई शक नही.
श्रद्धा या तो पुरी होती है, या
सीर्फ बुद्ही की शाखाएं बढती है..
कुछ जान के चलो, कुछ मान के चलो. .(जय गुरूदेव)
कृष्ण भावना से हर पल जुडे रहो||
||जय गुरूदेव ||
देह बुद्हीसे परे भी तुम्हारा अस्तीत्व है,
कर्म सीर्फ शरीर बुद्ही से सीमीत मत रखो,
कर्म अगर भगवान् से जुड़ा हो,
तो क्या बात है..
शरीर से जुडा कर्म तो शरीर के साथ ख़त्म होगा,
श्री कृष्ण से जुडा हुआ कर्म तो शरीर से ही मुक्ती देगा.
शरीर का कर्म तो पुरा होने तक उसका कोई फल नही,
श्री कृष्ना से जुडा कर्म तो थोडा थोडा फीर भी हर बार पुरा ,
इस मैं कोई शक नही.
श्रद्धा या तो पुरी होती है, या
सीर्फ बुद्ही की शाखाएं बढती है..
कुछ जान के चलो, कुछ मान के चलो. .(जय गुरूदेव)
कृष्ण भावना से हर पल जुडे रहो||
||जय गुरूदेव ||
Sunday, 30 September 2007
भागवत गीता २.३८-२.३९ सांख्य भक्ती योग
आपने लीये कर्म करना,
और भगवान के लीये कर्म करना,
बस, इन मैं भेद जीसने जाना,
उसका जीवन धन्य हो गया,
अपने दील के सुख या दुख के लीये,
इन्द्रीयोंसे जुड़ा कोई भी कर्म होता है,
वोह काल गती मैं फीर से बंध जाता है,
भगवान की शरण मैं जों कर्म कर्ता है,
वोह सब कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है,
अर्जुना, तुम तो 'भक्त' हो,
युद्ध युद्ध के लीये करो,
मैं कह रहा हु, इस्लीये करो,
तो तुम इसके परीणामौसे मुक्त हो जाओगे
यही सांख्य योग है, भक्ती योग है,
भगवान् की शरण मैं कर्म करना,
नीरंतर अनंद को पा लेना है ||
|| जय गुरुदेव ||
और भगवान के लीये कर्म करना,
बस, इन मैं भेद जीसने जाना,
उसका जीवन धन्य हो गया,
अपने दील के सुख या दुख के लीये,
इन्द्रीयोंसे जुड़ा कोई भी कर्म होता है,
वोह काल गती मैं फीर से बंध जाता है,
भगवान की शरण मैं जों कर्म कर्ता है,
वोह सब कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है,
अर्जुना, तुम तो 'भक्त' हो,
युद्ध युद्ध के लीये करो,
मैं कह रहा हु, इस्लीये करो,
तो तुम इसके परीणामौसे मुक्त हो जाओगे
यही सांख्य योग है, भक्ती योग है,
भगवान् की शरण मैं कर्म करना,
नीरंतर अनंद को पा लेना है ||
|| जय गुरुदेव ||
भागवत गीता २.३५-२.३७ भक्त की आंखोंसे'
भक्त की आंखोंसे'
समझानेसे , समझ ना पाया,
माया का पर्दा हटा ना सका,
भगवान् ने फीर भाषा बदली,
भक्त से दोस्ती की ऊँगली पकड़ाइँ,
ऊंचाई से ना देख पाया तो,
खुद उस से नज़ारे मीलाई,
और कहने लगे भगवान्,
मेरा कुछ ना सुनो अब,
सीर्फ सोचो, अर्जुना एक बार,
नही लडोगे तो ना पाओगे सं मान,
ना ही मीलेगा स्वगि का द्वार,
लडोगे तो दीलोंपेर भी राज करोगे,
और स्वर्ग के द्वार भी खुलेंगे,
तुम जों भी करोगे, एक इतीहास बन कर रहेगा,
डरपोक होकर नींदा सह्नेसे अच्छा है,
धर्म नीभाकर एक मीसाल बन जाना ..||
समझानेसे , समझ ना पाया,
माया का पर्दा हटा ना सका,
भगवान् ने फीर भाषा बदली,
भक्त से दोस्ती की ऊँगली पकड़ाइँ,
ऊंचाई से ना देख पाया तो,
खुद उस से नज़ारे मीलाई,
और कहने लगे भगवान्,
मेरा कुछ ना सुनो अब,
सीर्फ सोचो, अर्जुना एक बार,
नही लडोगे तो ना पाओगे सं मान,
ना ही मीलेगा स्वगि का द्वार,
लडोगे तो दीलोंपेर भी राज करोगे,
और स्वर्ग के द्वार भी खुलेंगे,
तुम जों भी करोगे, एक इतीहास बन कर रहेगा,
डरपोक होकर नींदा सह्नेसे अच्छा है,
धर्म नीभाकर एक मीसाल बन जाना ..||
Thursday, 27 September 2007
भागवत गीता - २.३१-२.३४ धर्म से कर्म कर
भागवत गीता - २.३१-२.३४
धर्म से कर्म कर
ओह, अर्जुना,
तुम तो क्शत्रीय हो,
'क्षत' याने पीडा , 'त्रयता' मतलब मीटानेवाला वाला,
तुम पीड़ा से तार्नेवाले हो, यही तुम्हारा धर्म है,
अहींसा तुम्हारी चाल हो सकती है,
चलन नही, तत्व नही..
तुम्हारा अहम भाव है,
जों तुमको अच्छाई के परदे से
एक संकुचीत भाव मैं डाल रहा है..
जब तक मुक्ती नही मीलती,
तब तक शरीर धर्म पालन करना ही होगा,
तभी मुक्ती का पथ आगे बढेगा..
तुम तो भाग्यवान हो पार्थ,
स्वगि के द्वार तक पहुचानेके लीये,
अपना धर्म नीभानेके लीये,
युद्ध तो आप ही तुम्हारे सामने है..
उठो, और धर्म नीभाओ,
संकोच मत करो और संकुचीत भी मत हो जाओ..
धर्म से कर्म कर
ओह, अर्जुना,
तुम तो क्शत्रीय हो,
'क्षत' याने पीडा , 'त्रयता' मतलब मीटानेवाला वाला,
तुम पीड़ा से तार्नेवाले हो, यही तुम्हारा धर्म है,
अहींसा तुम्हारी चाल हो सकती है,
चलन नही, तत्व नही..
तुम्हारा अहम भाव है,
जों तुमको अच्छाई के परदे से
एक संकुचीत भाव मैं डाल रहा है..
जब तक मुक्ती नही मीलती,
तब तक शरीर धर्म पालन करना ही होगा,
तभी मुक्ती का पथ आगे बढेगा..
तुम तो भाग्यवान हो पार्थ,
स्वगि के द्वार तक पहुचानेके लीये,
अपना धर्म नीभानेके लीये,
युद्ध तो आप ही तुम्हारे सामने है..
उठो, और धर्म नीभाओ,
संकोच मत करो और संकुचीत भी मत हो जाओ..
Wednesday, 26 September 2007
भागवत गीता २।२९ - २.३० " अहो नीरंजनः "
" अहो नीरंजनः "
क्या तुमने सुना,कौन तुम्हे 'सुनवा' रहा है,
क्या तुमने देखा, कौन तुम्हे 'दीखा' रहा है,
क्या तुमने महसूस कीया, कौन तुमको 'महसूस करवा' रहा है??
जवाब दो,
अपने आप से,
कोई सोचता है, यह तो बड़ा आश्चयि है,
कोई कहता है, बड़ा वीस्मयकारक है,
कोई कहता है, यह तो समझ के बाहर है |
कोई कुछ भी कहे, यह 'है',
इसको कोई इनकार नही कर पायेगा |
तुम तो नादाँ नही हो भरता,
फीर ऎसी बाते क्यो करते हो?
जागो, और देखो,
सारे जगत मैं एक ही चैतन्य है,
उस अद्भूत चैतन्य को पहचान लो |
क्या तुमने सुना,कौन तुम्हे 'सुनवा' रहा है,
क्या तुमने देखा, कौन तुम्हे 'दीखा' रहा है,
क्या तुमने महसूस कीया, कौन तुमको 'महसूस करवा' रहा है??
जवाब दो,
अपने आप से,
कोई सोचता है, यह तो बड़ा आश्चयि है,
कोई कहता है, बड़ा वीस्मयकारक है,
कोई कहता है, यह तो समझ के बाहर है |
कोई कुछ भी कहे, यह 'है',
इसको कोई इनकार नही कर पायेगा |
तुम तो नादाँ नही हो भरता,
फीर ऎसी बाते क्यो करते हो?
जागो, और देखो,
सारे जगत मैं एक ही चैतन्य है,
उस अद्भूत चैतन्य को पहचान लो |
Monday, 24 September 2007
भग्वत गीता २.२६-२.२८
|| तुम लहर नही समंदर हो ||
यह बात तो तय है,
आनेवाला जाएगा,
जानेवाला आएगा,
काल की गती चलती रहेगी,
सागर मैं लहरे उठती रहेगी,
क्यो शरीर,दील, दीमाग को देख रहे हो,
सब एक दीखावा है,पल पल बदलने वाला है,
अरे पार्थ,
वोह देखो जीसकी वजह से दिख रह है,
वोह छुओ जीसके वजह से छू सकते हो,
वोह सुनो, जीसकी वजह से सुन सकते हो,
फीर पाओगे तुम अपने आप को,
और जानोगे, यहा जों भी है,
बस एक ही है, तुम मैं, उसमें,
आसमान मैं, भूमी मैं..
और जों 'है ' वोह 'है',
सीर्फ 'है'..
तुम्हारा दिखता हुआ शरीर,
मन्, बुद्ही, अंहकार और
इतनाही नही, तुम्हारा ग्यान भी
उस 'है' को बदल नही सकता,
ना उसका अतीत है, ना वर्तमान,
ना भवीष्य होगा ना काल
दील की ऊँगली पकडे मत चलो,
दील को सही रास्ता दीखाओ
तुम दील से परे हो
लहर नही समंदर हो ||
|| तुम लहर नही समंदर हो ||
यह बात तो तय है,
आनेवाला जाएगा,
जानेवाला आएगा,
काल की गती चलती रहेगी,
सागर मैं लहरे उठती रहेगी,
क्यो शरीर,दील, दीमाग को देख रहे हो,
सब एक दीखावा है,पल पल बदलने वाला है,
अरे पार्थ,
वोह देखो जीसकी वजह से दिख रह है,
वोह छुओ जीसके वजह से छू सकते हो,
वोह सुनो, जीसकी वजह से सुन सकते हो,
फीर पाओगे तुम अपने आप को,
और जानोगे, यहा जों भी है,
बस एक ही है, तुम मैं, उसमें,
आसमान मैं, भूमी मैं..
और जों 'है ' वोह 'है',
सीर्फ 'है'..
तुम्हारा दिखता हुआ शरीर,
मन्, बुद्ही, अंहकार और
इतनाही नही, तुम्हारा ग्यान भी
उस 'है' को बदल नही सकता,
ना उसका अतीत है, ना वर्तमान,
ना भवीष्य होगा ना काल
दील की ऊँगली पकडे मत चलो,
दील को सही रास्ता दीखाओ
तुम दील से परे हो
लहर नही समंदर हो ||
Sunday, 23 September 2007
धारा को राधा बनाओ
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भागवत गीता (2।22-2.२५)
|| धारा को राधा बनाओ ||
गंगा नीत नूतन है,
फीर भी बहोत पुरानी है,
धाराये बहती रहती है,
पानी नीत नूतन बहता है,
गंगा वही थी जों अब है,||
तुम भी नीत नूतन हो,
फीर भी बहोत पुराने हो,
भावानाये बहती रहती है,
आती जाती रहती है,
तुम वही थे जों अब हो,||
जरा एक पल रुको ,
शांती से देखो,
धारा को राधा बनाओ (जय गुरुदेव)
इसी पल मैं जान लो,
कल भी तुम वही रहोगे,
जों कल थे, आजभी हो,
अन छुए , शुद्ध, पवीतृ
ना आग तुमको जला सकती है,
ना पानी तुम्हे डूबा सकता है,
ना वायु तुम्हे बहा सकता है,
ना मिट्टी तुम्हे मीटा सकती है,
जनम और मृत्यु का भय कैसा,
वोह तो आते जाते है,
नए शरीर लेके.
कर्म करने के लीये..||
असली रूप को जानो,
और नीराशा से परे हो जाओ..
धारा को राधा बनाओ।
धारा को राधा बनाओ ||
भागवत गीता (2।22-2.२५)
|| धारा को राधा बनाओ ||
गंगा नीत नूतन है,
फीर भी बहोत पुरानी है,
धाराये बहती रहती है,
पानी नीत नूतन बहता है,
गंगा वही थी जों अब है,||
तुम भी नीत नूतन हो,
फीर भी बहोत पुराने हो,
भावानाये बहती रहती है,
आती जाती रहती है,
तुम वही थे जों अब हो,||
जरा एक पल रुको ,
शांती से देखो,
धारा को राधा बनाओ (जय गुरुदेव)
इसी पल मैं जान लो,
कल भी तुम वही रहोगे,
जों कल थे, आजभी हो,
अन छुए , शुद्ध, पवीतृ
ना आग तुमको जला सकती है,
ना पानी तुम्हे डूबा सकता है,
ना वायु तुम्हे बहा सकता है,
ना मिट्टी तुम्हे मीटा सकती है,
जनम और मृत्यु का भय कैसा,
वोह तो आते जाते है,
नए शरीर लेके.
कर्म करने के लीये..||
असली रूप को जानो,
और नीराशा से परे हो जाओ..
धारा को राधा बनाओ।
धारा को राधा बनाओ ||
Friday, 21 September 2007
भागवत गीता (२.१९-२.२१)अजो अनन्ताय
अजो अनन्ताय (२.१९-२.२१)
सत् तो इन्दिर्यों से परे है,
जों ना आंखोंसे दीखता है, जोन ना पकड़ मैं आता है,
जों ना जबान से कहा जा सकता है, ना कानों से सून सकते हो.
इसिलए सत् की जबानी सीर्फ 'नेती' 'नेती' हो सकती है,
कैसे उसे कहे वोह क्या है??
जोह भी मारनेवाला है,या मरनेवाला है,
वोह तो ना तुम हो ना वोह, ना कोइ और,
वोह तो रुप मैं बंधे हुये आकार है,
जैसे दीखता है, मगर अँधेरा कभी होता ही नही,
वोह तो सीर्फ रौशनी का आभाव होता है,
और रौशनी कभी आती और जाती नही,
वोह हमेशा रहती है,
पानी मैं भी, हवा मैं भी,
तुम जीस्त्रह से देखोगे, उसे जगाओगे,
वोह वैसे रुप लेगी, मगर उसके रुप मीटानेसे
वोह नही मीटेगी, उसका सीर्फ दीखना मीटेगा.
है ना?
सत् तो इन्दिर्यों से परे है,
जों ना आंखोंसे दीखता है, जोन ना पकड़ मैं आता है,
जों ना जबान से कहा जा सकता है, ना कानों से सून सकते हो.
इसिलए सत् की जबानी सीर्फ 'नेती' 'नेती' हो सकती है,
कैसे उसे कहे वोह क्या है??
जोह भी मारनेवाला है,या मरनेवाला है,
वोह तो ना तुम हो ना वोह, ना कोइ और,
वोह तो रुप मैं बंधे हुये आकार है,
जैसे दीखता है, मगर अँधेरा कभी होता ही नही,
वोह तो सीर्फ रौशनी का आभाव होता है,
और रौशनी कभी आती और जाती नही,
वोह हमेशा रहती है,
पानी मैं भी, हवा मैं भी,
तुम जीस्त्रह से देखोगे, उसे जगाओगे,
वोह वैसे रुप लेगी, मगर उसके रुप मीटानेसे
वोह नही मीटेगी, उसका सीर्फ दीखना मीटेगा.
है ना?
नीरंतर जीवन
भागवत गीता - २.१६-२.१८
नीरंतर जीवन
जों पल पल बदल रह है, वोह कैसे रहेगा हमेशा,
हमेशा तो सत्य ही रहता है, कल आज और कल, वैसे के वैसा,
भावनाओं को देखो , वोह बदल रही है पल पल,
इसीलीये मन टीक नही पा रहा एक ही जवाब पर,
तो क्या फीर यह भावानाओंके खेल को 'सत्' सम्जोगे ??
ज़रा भावानाओंके उस पार देखो, जहाँ कोई अच्छी या बुरी बात नही,
ना स्तीथी है, ना गती,
ना पाना है , ना खोना ,
ना माया है ना शंका,
ना आभाव है ना प्रभाव
तो तुम देख पाओगे,
जों था, है, रहेगा,
जैसा था, वैसेही शुद्ध, स्वयम्भू
व्यक्त , अव्यक्त दोनो मैं,
जीसका ना जनम है ना मृत्यू है,
जों जानेवाला है वोह तो सीर्फ शरीर है,
'सत्'को देखोगे तो जानोगे,
सभी जगह..
सीर्फ 'है'....यह 'है' ही 'सत्' है,
फीर डर कीस के खोने का?
कौनसे 'जय' और 'पराजय'का?
कौनसे 'सही' और 'गलत' का?
उठो, और अपना 'शरीर कर्म' करो॥
(क्षत्रिय का शरीर पाया है, उसका धर्म नीभाओ)
नीरंतर जीवन
जों पल पल बदल रह है, वोह कैसे रहेगा हमेशा,
हमेशा तो सत्य ही रहता है, कल आज और कल, वैसे के वैसा,
भावनाओं को देखो , वोह बदल रही है पल पल,
इसीलीये मन टीक नही पा रहा एक ही जवाब पर,
तो क्या फीर यह भावानाओंके खेल को 'सत्' सम्जोगे ??
ज़रा भावानाओंके उस पार देखो, जहाँ कोई अच्छी या बुरी बात नही,
ना स्तीथी है, ना गती,
ना पाना है , ना खोना ,
ना माया है ना शंका,
ना आभाव है ना प्रभाव
तो तुम देख पाओगे,
जों था, है, रहेगा,
जैसा था, वैसेही शुद्ध, स्वयम्भू
व्यक्त , अव्यक्त दोनो मैं,
जीसका ना जनम है ना मृत्यू है,
जों जानेवाला है वोह तो सीर्फ शरीर है,
'सत्'को देखोगे तो जानोगे,
सभी जगह..
सीर्फ 'है'....यह 'है' ही 'सत्' है,
फीर डर कीस के खोने का?
कौनसे 'जय' और 'पराजय'का?
कौनसे 'सही' और 'गलत' का?
उठो, और अपना 'शरीर कर्म' करो॥
(क्षत्रिय का शरीर पाया है, उसका धर्म नीभाओ)
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